दंतेश्‍वरी मंदिर, छत्तीसगढ़


छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की हसीन वादियों में स्तिथ है, दन्तेवाड़ा का प्रसिद्ध दंतेश्‍वरी मंदिर।  देवी पुराण में शक्ति पीठों की संख्या 51 बताई गई है जबकि तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। जबकि कई अन्य ग्रंथों में यह संख्या 108 तक बताई गई है। दन्तेवाड़ा को हालांकि देवी पुराण के 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं किया गया है लेकिन इसे देवी का 52 वा शक्ति पीठ माना जाता है।  मान्यता है की यहाँ पर सती का दांत गिरा था इसलिए इस जगह का नाम दंतेवाड़ा और माता क़ा नाम दंतेश्वरी देवी पड़ा। 51 शक्ति पीठों की जानकारी और शक्ति पीठों के निर्माण कि कहानी आप हमारे पिछले लेख 51 शक्ति पीठ में पढ़ सकते है। दंतेश्‍वरी मंदिर शंखिनी और डंकिनी नदीयों के संगम पर स्तिथ हैं। दंतेश्‍वरी देवी  को बस्तर क्षेत्र की कुलदेवी का दर्ज़ा प्राप्त है। इस मंदिर की एक खासियत यह है की माता के दर्शन करने के लिए आपको लुंगी या धोति पहनकर ही मंदीर में जाना होगा।  मंदिर में सिले हुए वस्त्र पहन कर जानें की मनाही है।

मंदिर के निर्माण की कथा :

दन्तेवाड़ा शक्ति पीठ में माँ दन्तेश्वरी के मंदीर का निर्माण कब व कैसे हूआ इसकि क़हानी कुछ इस तरह है। ऐसा माना जाता है कि बस्‍तर के पहले काकातिया राजा अन्‍नम देव वारंगल से यहां आए थे। उन्‍हें दंतेवश्‍वरी मैय्या का वरदान मिला था। कहा जाता है कि अन्‍नम देव को माता ने वर दिया था कि जहां तक वे जाएंगे, उनका राज वहां तक फैलेगा। शर्त ये थी कि राजा को पीछे मुड़कर नहीं देखना था और मैय्या उनके पीछे-पीछे जहां तक जाती, वहां तक की ज़मीन पर उनका राज हो जाता। अन्‍नम देव के रूकते ही मैय्या भी रूक जाने वाली थी।

अन्‍नम देव ने चलना शुरू किया और वे कई दिन और रात चलते रहे। वे चलते-चलते शंखिनी और डंकिनी नंदियों के संगम पर पहुंचे। यहां उन्‍होंने नदी पार करने के बाद माता के पीछे आते समय उनकी पायल की आवाज़ महसूस नहीं की। सो वे वहीं रूक गए और माता के रूक जाने की आशंका से उन्‍होंने पीछे पलटकर देखा। माता तब नदी पार कर रही थी। राजा के रूकते ही मैय्या भी रूक गई और उन्‍होंने आगे जाने से इनकार कर दिया। दरअसल नदी के जल में डूबे पैरों में बंधी पायल की आवाज़ पानी के कारण नहीं आ रही थी और राजा इस भ्रम में कि पायल की आवाज़ नहीं आ रही है, शायद मैय्या नहीं आ रही है सोचकर पीछे पलट गए।

वचन के अनुसार मैय्या के लिए राजा ने शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम पर एक सुंदर घर यानि मंदिर बनवा दिया। तब से मैय्या वहीं स्‍थापित है। दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।

अदभुत है मंदिर :

दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चार हाथ युक्त हैं। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ से अड्ढवस्थित है। बत्तीस काष्ठड्ढ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है।

माँ भुनेश्वरी देवी :

माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है और लाखो श्रद्धालु उनके भक्त हैं। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। लगभग चार फीट ऊंची माँ भुवनेश्वरी की अष्टड्ढभुजी प्रतिमा अद्वितीय है। मंदिर के गर्भगृह में नौ ग्रहों की प्रतिमाएं है। वहीं भगवान विष्णु अवतार नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमाएं प्रस्थापित हैं। कहा जाता है कि माणिकेश्वरी मंदिर का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ।

फाल्गुन में होता है मड़ई उत्सव क्या आयोज़न :

होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है, जिसमें आदिवासी संस्कृति की विश्वास और परंपरा की झलक दिखाई पड़ती है। नौ दिनों तक चलने वाले फाल्गुन मड़ई में आदिवासी संस्कृति की अलग-अलग रस्मों की अदायगी होती है। मड़ई में ग्राम देवी-देवताओं की ध्वजा, छत्तर और ध्वजा दण्ड पुजारियों के साथ शामिल होते हैं। करीब 250 से भी ज्यादा देवी-देवताओं के साथ मांई की डोली प्रतिदिन नगर भ्रमण कर नारायण मंदिर तक जाती है और लौटकर पुनरू मंदिर आती है। इस दौरान नाच मंडली की रस्म होती है, जिसमें बंजारा समुदाय द्वारा किए जाने वाला लमान नाचा के साथ ही भतरी नाच और फाग गीत गाया जाता है। मांई जी की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है। मड़ई के अंतिम दिन सामूहिक नृत्य में सैकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आनंद लेते हैं। फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है।

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