सोलह मातृकाएं


किसी भी प्रकार की मंगल कामना और कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही सोलह मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए। अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन 16 मातृकाओं की पूजा का विधान है। इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है। ये 16 मातृकाएं निम्नलिखित है- गौरी, पद्या, शची, मेघा, सावित्री, विजय, जपा, पष्ठी, स्वधा, स्वाहा, माताएं, लोकमताएं, धृति, पुष्टि, तुष्टी तथा कुल देवता। 

1. गौरी-: यश, मंगल, सुख-सुविधा आदि व्यवहारिक पदार्थ तथा मोक्ष-प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। गौरी शरणगतवत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी है। सूर्य में जो तेज है वह माता गौरी की कृपा से ही है। भगवान शंकर को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। माता गौरी दु:ख, शोक, भय, उद्वेग को सदा के लिए नष्ट कर देती है। इसलिए देवी भागवत में कहा गया है कि बिना गौरी-गणेश की पूजा के कोई कार्य सफल नहीं हो सकता। आराधना स्त्रोत:- हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शंकरप्रियाम्। लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयम्यहम्।
  2. पद्मा-: पद्मा माता लक्ष्मी का ही रूप है। जब-जब भगवान कल्कि का अवतार ग्रहण करते हैं तब-तब माता लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है। पद्मा का अविर्भाव समुद्र मंथन के पश्चात हुआ है। वह समस्त ऐश्वर्य, वैभव, धन-धान्य और समृद्धि को प्रदान करती हंै। इसलिए यह विष्णुप्रिया हमेशा कमल पर विराजमान रहती हंै। ्रआराधना स्त्रोत- पद्मापत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:। पद्मासनायै पदमिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
  3. शची-: ऋग्वेद के अनुसार विश्व में जितनी भी सौभाग्यशाली नारियां हैं उनमें शची सबसे अधिक सौभ्याग्यशालिनी हैं। इनके रूप से सम्मोहित होकर ही देवराज इन्द्र ने इनका वरण किया। शची पवित्रता में श्रेष्ठ और स्त्री जाति के लिए आदर्श हैं। रूप, यौवन और कामुकता का अभय वरदान प्राप्ति के लिए शची की आराधना श्रेयकर माना जाता है। आराधना स्त्रोत- दिव्यरूपां विशालाक्षीं शुचिकुण्डलधारिणीम। रत्न मुक्ताद्यलडंकररां शचीमावाहयाम्यहम्।।
  4. मेधा: मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो निर्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए। आराधना स्त्रोत- वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्। बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।
  5. सावित्री-: सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है। इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है। सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से ही प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है। आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा।
  6. विजया-: विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है। आराधना स्त्रोत- विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्। त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।
  7. जया-: प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-' जया में चाग्रत: पातु विजया पातु पृष्ठत:Ó। अर्थात हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें। आवाहन स्त्रोत: सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्। त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।
  8. पष्ठी-: लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती हंै। ये जगत पर शासन करती है। इनकी सेना के प्रधान सेनापति कुमार स्कन्द है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता पष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया-पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। आवाहन स्त्रोत : मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्। आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।
  9. स्वधा-: पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है। ब्राह्मण वायपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है। आराधना स्त्रोत: ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्। पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।
  10. स्वाहा: मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही मदद करती है। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है। इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है। आराधना स्त्रोत: स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम। सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।
  11. मातर:(मातृगण:) शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त-वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:। सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।
  12. लोक माताएं-: राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हंै। समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा: शुभा:। नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।। आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:। शक्राद्यैरर्चिता देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।
  13. घृति-: माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै। माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।
  14. पुष्टि-: माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हंै। आवाहन स्त्रोत : पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम । बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।
  15. तुष्टि-: माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं। आवाहन स्त्रोत: आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्। संतोष भावयित्रीं च रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।
  16. कुलदेवता-: मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है। आवाहन स्त्रोत: चूंकि अलग-अलग कुल के अलग-अलग देवता व देवियां होते हंै। इसलिए सबका मंत्र अलग-अलग है।

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