Mata Mansa Devi Shaktipeeth, Panchkula (Haryana).

राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों का एक समूह यज्ञ करवा रहा था। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए। भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे। सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व / ब्रिहासनी' नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी किपिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। 'तंत्र-चूड़ामणि' के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या करशिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया। मनीमाजरा के निकट शिवालिक गिरिमालाओं पर देवी के मस्तिष्क का अग्र भाग गिरने से मनसा देवी आदि शक्ति पीठ देश के लाखों भक्तों के लिए पूजा स्थल बन गए है।

भारत की सभ्यता एवं संस्कृति आदिकाल से ही विश्व की पथ-प्रदर्शक रही है और इसकी चप्पा-चप्पा धरा को ऋषि-मुनियों ने अपने तपोबल से पावन किया है। हरियाणा की पावन धरा भी इस पुरातन गौरवमय भारतीय संस्कृति,धरोहर तथा देश के इतिहास एवं सभ्यता का उद्गम स्थल रही है। यह वह कर्म भूमि ह,ै जहां धर्म की रक्षा के लिये दुनियां का सबसे बड़ा संग्राम महाभारत लड़ा गया था और गीता का पावन सन्देश भी इसी भू-भाग से गुंजित हुआ है। वहीं शिवालिक की पहाडिय़ों से लेकर कुरूक्षेत्र तक के 48 कोस के सिन्धुवन में ऋषि-मुनियों द्वारा पुराणों की रचना की गई और यह समस्त भू-भाग देव धरा के नाम से जाना जाता है। इसी परम्परा में हरियाणा के जिला पंचकूला में शिवालिक पर्वत मालाओं की गोद में सिन्धुवन के अन्तिम छोर पर प्राकृतिक छटाओं से आच्छादित एकदम मनोरम एवं शान्त वातावरण में स्थित है-सतयुगी सिद्ध माता मनसा देवी का मन्दिर। कहा जाता है कि यदि कोई भक्त सच्चे मन से 40 दिन तक निरन्तर मनसा देवी के भवन में पहुंच कर पूजा अर्चना करता है तो माता मनसा देवी उसकी मनोकामना अवश्य पूरी करती है। माता मनसा देवी का चैत्र और आश्विन मास के नवरात्रों में मेला लगता है। माता मनसा देवी के मन्दिर को लेकर कई धारणाएं व मान्यताएं प्रचलित है। श्री माता मनसा देवी का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि अन्य सिद्ध शक्तिपीठों का। इन शक्तिपीठों का कैसे और कब प्रादुर्भाव हुआ इसके बारे में शिवपुराण में विस्तृत वर्णन मिलता है। धर्म ग्रन्थ तंत्र चूड़ामणि के अनुसार ऐसे सिद्ध देवीपीठों की संख्या 51 है जबकि देवी भागवत पुराण में 108 सिद्धपीठों का उल्लेख मिलता है जो सती के अंगों के गिरने से प्रकट हुए। श्री माता मनसा देवी के प्रकट होने का उल्लेख शिवपुराण में मिलता है। माता पार्वती हिमालय के राजा दक्ष की कन्या थी,व अपने पति भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत पर उनका वास था। कहा जाता है कि एक बार राजा दक्ष ने अश्वमेध यज्ञ रचाया और उसमें सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया,परन्तु इसके भगवान शिव को नहीं बुलाया इसके बावजूद भी पार्वती ने यज्ञ में शामिल होने की बहुत जिद्द की। महादेव ने कहा कि बिना बुलाए वहां जाना नहीं चाहिये और यह शिष्टाचार के विरूद्ध भी है। अन्त में विवश होकर मां पार्वती का आग्रह शिवजी को मानना पड़ा। शिवजी ने अपने कुछ गण पार्वती की रक्षार्थ साथ भेजे। जब पार्वती अपने पिता के घर पहुंची तो किसी ने उनका सत्कार नहीं किया। वह मन ही मन अपने पति भगवान शंकर की बात याद करके पश्चाताप करने लगी। हवन यज्ञ चल रहा था। यह प्रथा थी कि यज्ञ में प्रत्येक देवी देवता एवं उनके सखा सम्बन्धी का भाग निकाला जाता था। जब पार्वती के पिता ने यज्ञ से शिवजी का भाग नहीं निकाला तो पार्वती को बहुत आघात लगा। आत्म सम्मान के लिये गौरी ने अपने आप को यज्ञ की अग्नि में होम कर दिया। पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में प्राणोत्सर्ग करने के समाचार को सुन शिवजी बहुत क्रोधित हुए और वीरभद्र को महाराजा दक्ष को खत्म करने के लिये आदेश दिये। क्रोध में वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक काटकर यज्ञ विधवंस कर डाला। शिवजी ने जब यज्ञ स्थान पर जा कर सती के दग्ध शरीर को देखा तो सती पुकारते हुये उनके दग्ध शरीर को कन्धे पर रखकर भ्रान्तचित से ताण्डव नृत्य करते हुये देश देशान्तर में भटकने लगे। भगवान शिव का उग्र रूप देखकर ब्रह्मा आदि देवताओं को बड़ी चिन्ता हुई। शिवजी का मोह दूर करने के लिये सती की देह को उनसे दूर करना आवश्यक था,इसलिये भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से लक्ष्यभेद कर सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर दिया। वे अंग जहां-जहां गिरे वहीं शक्तिपीठों की स्थापना हुई और शिव ने कहा कि इन स्थानों पर भगवती शिव की भक्ति भाव में अराधना करने पर कुछ भी दुलर्भ नहीं होगा,क्योंकि उन-उन स्थानों पर देवी का साक्षात निवास रहेगा। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के स्थान पर सती का मस्तक गिरने से बृजेश्वरी देवी शक्तिपीठ, ज्वालामुखी पर जिव्हा गिरने से ज्वालाजी, मन का भाग गिरने से छिन्न मस्तिका चिन्तपूर्णी, नयन से नयना देवी, त्रिपुरा में बाई जंघा से जयन्ती देवी, कलकता में दाये चरण की आंगुलियां गिरने से काली मन्दिर, कराची के निकट हाथ गिरने से हिगलाज देवी, सहारनपुर के निकट शिवालिक पर्वत पर शीश गिरने से शकुम्भरी, कुरूक्षेत्र में गुल्फ गिरने से भद्रकाली शक्तिपीठ तथा मनीमाजरा के निकट शिवालिक गिरिमालाओं पर देवी के मस्तिष्क का अग्र भाग गिरने से मनसा देवी आदि शक्तिपीठ देश के लाखों भक्तों के लिये पूजा स्थल बन गये है। एक अन्य दन्तकथा के अनुसार मनसा देवी का नाम महन्त मनसा नाथ के नाम पर पड़ा बताया जाता है। मुगलकालीन बादशाह सम्राट अकबर के समय लगभग सवा चार सौ वर्ष पूर्व बिलासपुर गांव में देवी भक्त महन्त मनसा नाथ रहते थे। उस समय याहं देवी की पूजा अर्चना करने दूर-2 से लोग आते थे। दिल्ली सूबे की ओर से यहां मेले पर आने वाले प्रत्येक यात्री से एक रुपया कर के रूप में वसूल किया जाता था। इस का महन्त मनसा नाथ ने विरोध किया। हकूमत के दण्ड के डर से राजपूतों ने उनके मन्दिर में प्रवेश पर रोक लगा दी। माता का अनन्य भक्त होने के नाते उसने वर्तमान मन्दिर से कुछ दूर नीचे पहाड़ों पर अपना डेरा जमा लिया और वहीं से माता की पूजा करने लगा। महन्त मनसा नाथ का धूना(स्थान)आज भी मनसा देवी की सीढिय़ों के शुरू में बाईं ओर देखा जा सकता है। आईने अकबरी में यह उल्लेख मिलता है कि जब सम्राट अकबर 1567 ई. में कुरूक्षेत्र में एक सूफी सन्त को मिलने आए थे तो लाखों की संख्या में लोग वहां सूर्य ग्रहण पर इक_े हुये थे। महन्त मनसा नाथ भी संगत के साथ कुरुक्षेत्र में स्नान के लिये गये थे। कहते है कि जब नागरिकों एवं कुछ सन्तों ने अकबर से सरकार द्वारा यात्रियों से कर वसूली करने की शिकायत की तो उन्होंने हिन्दुओं के प्रति उदारता दिखाते हुये सभी तीर्थ स्थानों पर यात्रियों से कर वसूली पर तुरन्त रोक लगाने का हुकम दें दिया, जिसके फलस्वरूप कुरूक्षेत्र एवं मनसा देवी के दर्शनों के लिये कर वसूली समाप्त कर दी गई। श्री माता मनसा देवी के सिद्ध शक्तिपीठ पर बने मन्दिर का निर्माण मनीमाजरा के राजा गोपाल सिंह ने अपनी मनोकामना पूरी होने पर लगभग पौने दो सौ वर्ष पूर्व चार वर्षो में अपनी देखरेख में सन् 1815 ईसवी में पूर्ण करवाया था। मुख्य मन्दिर में माता की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के आगे तीन पिडियंा है जिन्हें मां का रूप ही माना जाता है। ये तीनों पिडियां महालक्ष्मी, मनसा देवी तथा सरस्वती के नाम से जानी जाती है। मंदिर की परिक्रमा पर गणेश, हनुमान, द्वारपाल, वैष्णवी देवी, भैरव की मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित है। इसके अतिरिक्त श्री मनसा देवी मंदिर के प्रवेश द्वार पर माता मनसा देवी की विधि विधान से अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित कर दी गई है। इस समय मनसा देवी के तीन मंदिर है,जिनका निर्माण पटियाला के महाराजा द्वारा करवाया गया था। प्राचीन मन्दिर के पीछे निचली पहाड़ी के दामन में एक उंचे गोल गुम्बदनुमा भवन में बना माता मनसा देवी का तीसरा मन्दिर है। मन्दिर के ऐतिहासिक महत्व तथा मेलों के ऊपर प्रतिवर्ष आने वाले लाखों यात्रियों को और अधिक सुविधाएं प्रदान करने के लिये हरियाणा सरकार ने मनसा देवी परिसर को 9 सितम्बर,1991 को माता मनसा देवी पूजा स्थल बोर्ड का गठन करके इसे अपने हाथ में ले लिया था। बोर्ड ने थोडे से समय में करोड़ों रुपये खर्च करके न केवल मन्दिर का जीर्णोद्वार किया है बल्कि यात्रियों की सुख सुविधा के लिये धर्मशालाओं, चिकित्सालयों तथा आधुनिक शौचालयों का भी निर्माण किया गया है। श्री माता मनसा देवी की मान्यता के बारे पुरातन लिखित इतिहास तो उपलब्ध नहीं है परन्तु पिंजौर, सकेतड़ी एवं कालका क्षेत्र में पुरातत्ववेताओं की खोज से यहां जो प्राचीन चीजें मिली हैं,जो पाषाण युग से सम्बन्धित हैं उनसे यह सिद्ध होता है कि आदिकाल में भी इस क्षेत्र में मानव का निवास था और वे देवी-देवताओं की पूजा करते थे जिससे यह मान्यता सुदृढ होती है कि उस समय इस स्थान पर माता मनसा देवी का मन्दिर विद्यमान था। यह भी जनश्रुति की पाण्डवों ने बनवास के समय इस उतराखण्ड़ में पंचपुरा( पिंजौर) की स्थापना की थी। उन्होंने ही अन्य शक्तिपीठों के साथ-साथ चण्डीगढ के निकट चण्ड़ीमन्दिर, कालका में काली माता तथा मनसा देवी मन्दिर में देवी आराधना की थी। पाण्डवों के बनवास के दिनों में भगवान श्री कृष्ण के भी इस क्षेत्र में आने के प्रमाण मिलते हैं। त्रेता युग में भी भगवान द्वारा शक्ति पूजा का प्रचलन था और श्री राम द्वारा भी इन शक्तिपीठों की पूजा का वर्णन मिलता है। हरिद्वार के निकट शिवालिक की उंची पहाडिय़ों की चोटी पर माता मनसा देवी का एक और मन्दिर विद्यमान है जो आज देश के लाखों यात्रियों के लिये अराध्य स्थल बना हुआ है परन्तु उस मन्दिर की गणना 51 शक्तिपीठों में नहीं की जाती । पंचकूला के बिलासपुर गांव की भूमि पर वर्तमान माता मनसा देवी मन्दिर ही सिद्ध शक्तिपीठ है, जिसकी गणना 51 शक्ति पीठों में होने के अकाट्य प्रमाण हैं। हरिद्वार के निकट माता मनसा देवी के मन्दिर के बारे यह दन्त कथा प्रसिद्ध है कि यह मनसा देवी तो नागराज या वासुकी की बहन, महर्षि कश्यप की कन्या व आस्तिक ऋषि की माता तथा जरत्कारू ऋषि की पत्नी है जिसने पितरों की अभिलाषा एवं देवताओं की इच्छा एवं स्वयं अपने पति की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने तथा सभी की मनोकामनां पूर्ण करने के लिये वहां अवतार धारण किया था। सभी की मनोकामना पूर्ण करने के कारण अपने पति के नाम वाली जरत्कारू का नाम भक्तों में मनसा देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वह शाक्त भक्तों में अक्षय धनदात्रि, संकट नाशिनी, पुत्र-पोत्र दायिनी तथा नागेश्वरी माता आदि नामों से प्रसिद्ध है।


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