छोटी कांशी के नाम से देशभर में प्रसिद्ध कस्बा बेरी में महाभारतकाल के दौरान माता भीमेश्वरी देवी के मंदिर का निर्माण महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने करवाया था। माता भीमेश्वरी देवी के इस मंदिर में नवरात्र के समय वर्ष में दो बार नौ दिवसीय मेले लगते हैं। मंदिर के महंत सेवापुरी बताते हैं कि बेरी में माता भीमेश्वरी देवी का सबसे प्राचीन मंदिर है। महाभारतकाल के दौरान जब कौरवों व पांडवों का युद्ध चल रहा था तो अपनी जीत के लिए महाबली भीम पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज पर्वत पर मौजूद कुलदेवी को लाने के लिए गए थे। उस समय कुल देवी ने शर्त रखी थी कि वे अगर उन्हें रणक्षेत्र तक अपने कंधे पर लेकर जाएंगे तो वे उनके साथ चलने के लिए तैयार हैं। जबकि उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्होंने कहीं भी उन्हें अपने कंधे से उतार दिया तो वे वहीं पर विराजमान हो जाएंगी। जिसके बाद पांडव पुत्र भीम कुलदेवी को लेकर बेरी क्षेत्र में आए तो उन्हें लघुशंका हुई तो उन्होंने कुलदेवी को एक पेड़ के नीचे उतार दिया और लघुशंका के लिए चले गए। जब भीम वापिस आकर कुल देवी को उठाने लगे तो उन्होंने भीम को अपनी शर्त याद दिलाई और वे वहीं विराजमान हो गई। बताया यह भी जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद दुर्योधन की माता गांधारी ने इस प्राचीन मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर में इसके बाद से ही नवरात्रों के अवसर पर वर्ष में दो बार मेला भी लगता है। मेले में सप्तमी व अष्टमी के दिन सबसे ज्यादा श्रद्धालु माता के मंदिर में माथा टेकने के लिए आते हैं। -------- बच्चों का कराया जाता है मुंडन : बेरी के माता भीमेश्वरी देवी मंदिर में नवरात्र मेले के दौरान वर्ष में पैदा होने वाले बच्चों को मुंडन भी कराया जाता है। वहीं नवविवाहित जोड़ों की जात भी लगाई जाती है। अपनी मान्यता के अनुसार कुलदेवी की रात भी जगाई जाती है। माता के मंदिर में इसके बाद माथा टेक कर श्रद्धालु मन्नत भी मांगते हैं। -------------- कैसे पहुंचे बेरी : माता के मंदिर में दिल्ली से बहादुरगढ होते हुए झज्जर के रास्ते व छारा, दुजाना के रास्ते बेरी पहुंच सकते हैं। भिवानी व हिसार से कलानौर के रास्ते बेरी आ सकते हैं। चंडीगढ से करनाल, पानीपत, रोहतक होते हुए डीघल से बेरी मंदिर तक पहुंच सकते हैं। रेवाड़ी से वाया झज्जर होते हुए व महेंद्रगढ़ से चरखी दादरी, छुछकवास, जहाजगढ़ होते हुए श्रद्धालु बेरी मंदिर में पहुंच सकते हैं।
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