जीवन जीने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता

जीवन जीने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता
Life can not be a better way of living
जीवन अबूझ पहेली की तरह है। जब तक हम इसकी परिधि पर सांसारिकता और भौतिकता में घूमते रहते हैं, यह पहेली जटिलतर होती मालूम पड़ती है। लेकिन जैसे ही हमारे भीतर अपने केंद्र की ओर लौटने की इच्छा पैदा होती है, तो धुंध छंटने लगती है। हम अपना असली वजूद समझने लगते हैं। अपनी परिधि से केंद्र की ओर सफर त्याग के बगैर तय नहीं होता। दो दिन पहले मनाया गया ईद-उल-अजहा त्योहार, दरअसल इसी सफर का जश्न है।
ईद-उल-अजहा का शाब्दिक मतलब है- कुर्बानी की ईद। कुर्बानी शब्द अरबी के कर्ब से बना है, जिसका मतलब है बहुत करीब होना। जिसके भीतर इस अहम और स्वार्थ की कुर्बानी का भाव जितना गहराता जाता है वह उतना ही आध्यात्मिक होता चला जाता है, अल्लाह के करीब होता चला जाता है। उसके अंदर रूपांतरण की प्रक्रिया घटित होने लगती है। ऐसे व्यक्ति का जीवन त्यागमय उत्सव में परिणत हो जाता है।

हमारा अंतस उस घड़े की तरह हो गया है जो स्वार्थ और आसक्ति से भरा हुआ है। ऊपर वाले का फजल हवा की तरह हर जगह मौजूद है, लेकिन घड़ा उससे अछूता रहता है क्योंकि वह पहले से भरा है। त्याग द्वारा उसे खाली करना होगा। इंसान का यह घड़ा जब मैं-पन और तृष्णा से खाली हो जाता है, तो खुद-ब-खुद ही ईश्वरीय अनुकंपा से परिपूर्ण हो जाता है।
त्याग के इस पर्व की डोर हजरत इब्राहीम से जुड़ती है। उनका जन्म ईरान के उर शहर में हुआ था। तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने के चलते कबीले वाले उनके दुश्मन हो गए। लेकिन हजरत इब्राहीम ने लोगों की सेवा का काम जारी रखा और इसमें कभी भी नहीं रुके। एक दिन उन्हें सपने में आदेश मिला कि वे अल्लाह के लिए उन चीजों की कुर्बानी दें जो उन्हें प्यारी हैं। पहले उन्होंने अपने ऊंट की कुर्बानी दी, दोबारा सपना आने पर अपने सभी जानवरों की कुर्बानी दी और तीसरी बार वही सपना आने पर वे अपने पुत्र की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। लेकिन कुर्बानी देने के बाद जब उन्होंने आंखों से पट्टी उतारी तो देखा कि उनका पुत्र जीवित है और एक भेड़ की कुर्बानी कर दी गई है।
घटना का रूपक अगर समझेंगे तो सार पा जाएंगे, केवल शब्दों को पकड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमारे जीवन में जो कुछ है, वह अल्लाह का है। इसलिए आसक्ति बाधा है। जैसे ही हम आसक्ति का त्याग करते हैं, ईश्वर के निकट पहुंच जाते हैं। सबसे प्राचीन उपनिषदों में से एक ईशावास्योपनिषद के पहले मंत्र में आता है- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थात इस जगत का त्याग के भाव से भोग करो। दुनिया में रहो, उपभोग भी करो, लेकिन त्याग व निस्वार्थता की अग्नि को हृदय में प्रज्ज्वलित रखकर। ईद-उल-अजहा का पर्व त्यागमय जीवन का यही आदर्श हमारे सामने रखता है।

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