अघोर पंथ और औघड़ों की दुनिया
औघड़ों की दुनिया समाज की रीति-नीति से ऊपर है। इनकी अनेक धाराएं हैं जिसे अघोर पंथ कहा जाता है। अघोर का अर्थ है जो घोर न हो अर्थात सीधा, सहज, सरल हो। इस पंथ के लोगों को अघोरी या औघड़ कहा जाता है। अघोर की तुलना गंगा से की गई है, जैसे गंगा शव व फूल में भेद नहीं करती, दोनों गंगा की धारा में बहते हैं, वैसे ही अघोर भी किसी प्रकार के भेदभाव में विश्वास नहीं करता। अवधूत भगवान राम का प्रसिद्ध वचन है- भेद भ्रम है, अभेद ब्रह्म है।
अघोर पंथ परम्परा
इस पंथ के जनक महेश यानी शिव हैं। उसके बाद दत्तात्रेय व कालूराम से होते हुए यह परंपरा आज तक चली आ रही है। दत्तात्रेय, कीनाराम व गोरखनाथ के बारे में एक कहानी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि गिरिनार पर्वत, जूनागढ़, गुजरात की चोटी पर दत्तात्रेय रहते थे और सबसे नीचे गोरखनाथ रहते थे। दत्तात्रेय चिलम पीकर आकाश मार्ग से गोरखनाथ के पास भेजते थे और गोरखनाथ चिलम पीकर पुन: आकाश मार्ग से दत्तात्रेय के पास भेज देते थे। एक बार दत्तात्रेय ने चिलम भेजी लेकिन गोरखनाथ के पास पहुंची नहीं, गोरखनाथ ने आत्मिक रूप से दत्तात्रेय से पूछा कि चिलम नहीं आई। दत्तात्रेय ने कहा कि बीच में औघड़ आकर बैठ गया है। बीच में बाबा कीनाराम पहुंच गए थे। जब दत्तात्रेय चिलम भेजते थे तो बीच में ही अघोराचार्य बाबा कीनाराम उसे खींच लेते थे और पीकर वापस कर देते थे। इस बारे में एक दोहा प्रसिद्ध हुआ- दत्त गोरख की अद्भुत माया, बीच में औघड़ आय समाया। आज भी इस पर्वत पर तीनों लोगों की टीकरी मौजूद है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में कीनाराम का विशेष प्रभाव है। इनकी मुख्य पीठ वाराणसी में क्रीं कुंड के नाम से जानी जाती है। इनकी परंपरा में अवधूत भगवान राम हुए थे जिनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में थी। अपना शरीर छोड़ते समय बाबा कीनाराम ने भक्तों को आश्वस्त किया था कि वे अपनी ग्यारहवीं गद्दी पर पुन: आएंगे। इस समय ग्यारहवीं गद्दी चल रही है। अघोराचार्य बाबा गौतमराम जी महाराज गद्दी संभाल रहे हैं। इन्हें पांच वर्ष की अवस्था में अवधूत भगवान राम ने गद्दी पर बिठाया था।
अघोर पंथ की दीक्षा
अघोर पंथ की साधना पहले बहुत कठिन हुआ करती थी। दीक्षा लेने के बाद साधक बारह वर्ष तक रूद्राचार में व्यतीत करता था। रूद्राचार के समय उसे जंगल, पहाड़, श्मशान आदि में ही रहना होता था, पूरे बारह वर्ष नहाना नहीं होता था। यदि भूख लगे तो पास के गांव में जाकर पांच घरों से भोजन मांगना होता था, यदि उन पांच घरों से कुछ न मिले तो छठें से कुछ मांगने की इजाजत नहीं थी। समाज पर नाम मात्र की निर्भरता होती थी। ताकि औघड़ समाज के ऊपर बोझ न बने। इसलिए औघड़ वस्त्र के रूप में कफन व भोजन पकाने के लिए श्मशान की लकड़ी का उपयोग करता था, यानी वे चीजें अपने उपयोग में लाता जो समाज से उपेक्षित हैं और समाज के काम नहीं आ सकती हैं। इस परंपरा में पंचमकार का प्रयोग होता है- मांस, मदिरा, मीन, मुद्रा व मैथुन। इन्हें मुक्ति प्रदाता माना गया है। इनके साथ रहकर इनसे अप्रभावित रहने की साधना है अघोर। क्योंकि संसार में सर्वाधिक बांधने वाले यही चीजें हैं, यदि इनकी गोद में बैठकर साधक इनसे ऊपर उठ गया तो फिर उसे संसार की कोई शक्ति बांध नहीं सकती। यह पंथ किसी भी प्रकार का दमन नहीं सिखाता है, भोग के बीच से योग का रास्ता सुझाता है।
रूद्राचार की परंपरा का अंत
पंचमकार की परंपरा तो आज भी है लेकिन अवधूत भगवान राम ने रूद्राचार की परंपरा को खत्म कर दिया और गुरु भक्ति को इस पंथ की मुख्य साधना बना दिया। आज औघड़ गुरुभक्ति की ही साधना करते हैं। अवधूत भगवान राम ने कहा था- कि रत्ती भर विश्वास करो तो हिमालय इधर से उधर हो जाएगा। उनके साधक इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी करते हैं। रूद्राचार समाप्त करने के साथ ही अवधूत भगवान राम ने सभी श्मशानों को कीलित कर दिया था, इसलिए अब इस पंथ में श्मशान साधना का कोई महत्व नहीं है। कुल मिलाकर गुरु भक्ति ही प्रमुख है। उन्होंने औघड़ों को वस्त्रों की बाध्यता से भी मुक्त किया और कहा कि कोई भी वस्त पहन सकते हो। इस पंथ को समाज से जोड़ने का श्रेय अवधूत भगवान राम को ही जाता है। इनके पूर्व यह पंथ समाज से कटा हुआ था।
ढोंगी औघाड़
औघड़ों के नाम पर कुछ लोग वेश बदल कर समाज को ठगने का कार्य करते हैं। औघड़ों के बारे में भ्रम फैलाने वाली पत्रिकाएं उनका ऐसा रूप प्रस्तुत करती हैं जो भयभीत करने वाला है। उसी का लाभ उठाकर कुछ लोग काले वस्त्र धारण कर लेते हैं, मदिरा पान करते हैं, अपना चेहरा क्रोधी बना लेते हैं, समाज को विभिन्न उपायों से भयभीत करते हैं और उनसे धन ऐंठते हैं। जबकि असली औघड़ न तो क्रोधी होता है और न ही उसे किसी प्रकार की पूजा या उपासना में रुचि होती है और न ही वह किसी को इसकी सलाह देता है। उसे जो भला करना होता है बिन बोले व बिन कुछ कहे भला कर देता है, वह ढिंढोरा नहीं पीटता है। इसलिए नकली औघड़ों से सावधान रहने की जरूरत है। औघड़ की मूल बात यह जान लें कि वह किसी का नुकसान नहीं करता, केवल लोक मंगल की कामना ही करता है, वह शिव का साक्षात स्वरूप होता है और शिव मंगलकारी हैं। औघड़ के इस रूप को ध्यान में रखेंगे तो न तो उससे भयभीत होंगे और न ही कोई नकली औघड़ आपको ठग पाएगा। क्रीं कुंड वाराणसी के अलावा पश्चिम बंगाल की तारा पीठ प्रमुख मानी जाती है। यहां वामा क्षेपा हुआ करते थे। इसी तरह कुछ और पीठें हैं जो अघोर साधना के लिए जानी जाती हैं, जिसमें कामाख्या पीठ, त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग नासिक, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन आदि हैं।
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