धर्म क्या है ? धर्म का अर्थ क्या है ? और धर्म में ऐसा क्या है जो श्री कृष्ण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, दशम गुरुओं समेत सहस्त्रों-सहस्त्र( हजारों) भारतीयों ने इसका प्रचार किया ?

वेद क्या है, वेदों का अर्थ क्या है? वेदों में क्या लिखा है ? वैदिक धर्म और वर्तमान हिन्दू आस्था किस प्रकार से विभेदित है ? यह भी आप इस लेख के माध्यम से, सरल भाषा में समझ सकतें हैं.. जिस में मैं आपको अधिक संस्कृत के श्लोक नहीं बताते हुए सीधे ही सरल भाषा में यह समझाऊंगा की सब कुछ कितना सरल है किन्तु कुछ मनुष्यों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए इसे कितना कठीन, क्लिष्ट बना दिया गया है |

सर्वप्रथम आओ जानते हैं धर्म क्या है ?

धर्म-मर्म-कर्म

धर्म का अर्थ धारण करना

मर्म का अर्थ जो अन्दर छिपा है वह अर्थ जानना

कर्म का अर्थ जो हम करतें है वह कर्म है

उपरोक्त सभी में एक बात समान है की वे सभी “क्रियाएँ” हैं अर्थात् ऊपर दिए हुए तीनो शब्द क्रिया है जिसमे किसी वस्तु का करना या होना पाया जाता है, चूँकि संस्कृत एक अत्यंत विकसित भाषा है अतः उसमे प्रत्येक शब्द की अपनी महिमा है, और इन छोटे छोटे शब्दों की इतनी बड़ी महिमा मैं यहाँ गाने जा रहा हूँ |

एक बार मर्म की बात करतें हैं – मर्म में मन में छिपी हुई बात का होना पाया गया है, जिसमे कुछ गूढ़ है, और उस गूढ़ ज्ञान को समझने के लिए हमें कोई न कोई क्रिया करनी होगी, अतः जब हम उस क्रिया को कर लेते हैं तो उसे हम कहते हैं “मार्मिक” , यानी यदि हमने कोई कविता गाई और आपने वो कविता सुनी, यदि उस कविता ने आपके हृदय को छुआ तो आप कहेंगे की यह कविता अत्यंत “मार्मिक” थी क्यूंकि उसने आपके हृदय को छुआ |

इसी प्रकार से कर्म, कर यानी “हाथ-भुजा” चूँकि हमारे शरीर में हमारे हाथ और भुजाएँ ही हैं जो की क्रिया करते समय हम अधिक प्रयोग करतें हैं, यथा अभी लिखते हुए भी मैं अपने हाथों का प्रयोग कर रहा हूँ, अतः हम इसे “कर्म” कहतें हैं, यह भी एक क्रिया है, और आप जो इस कर्म को कर रहें हैं, तो आप क्रिया के माध्यम है, अतः आप कार्मिक हैं |

अभी तक आपको समझ आ गया होगा की एक क्रिया है और एक क्रिया का माध्यम, इसी प्रकार से धर्म भी एक क्रिया है, धर्म का अर्थ है “धारण करने की क्रिया” क्या धारण करना ?

इसका उल्लेख मनु संहिता और वेदों में कहा गया है वह है :-

धृति (धैर्य) क्षमा (माफ़ करना) दमो (इच्छाओं को दबाना) अस्तेयं(चोरी ना करना) शौचं (मन और शरीर की शुद्धता ) इन्द्रिय निग्रहं (इन्द्रियों को अपने वश में करना) धी (विवेक) विद्या (अच्छा ज्ञान प्राप्त करना) सत्यम (सच बोलना) अक्रोधो (गुस्सा ना करना) दशकं धर्मस्य लक्षणं (यह दस धर्म के लक्षण हैं )

अर्थात् धर्म वह क्रिया है जिसमे ऊपर दिए गए १० (दश) लक्षणों को धारण किया जाता है अतः यदि आप धार्मिक हैं अतः इसका अर्थ है की आप इन दस लक्षणों को धारण कर उनको प्रसारित करने के एक माध्यम हैं |

अब आप ही बताइए की इसमें आपको कहीं पर भी किसी भी स्थान पर यह प्रतीत हुआ की यह गुण किसी को भी नहीं अपनाने चाहिए ? नहीं ना ? बस यही है वैदिक ज्ञान का आधार |

सिख गुरुओं ने धर्म को बचाने के लिए अपने प्राण दिए क्यूंकि अफ़ग़ान/ अरब एवं अन्य आक्रान्ताओं (अटैकर्स) ने धर्म को चोट की क्यूंकि उनमे क्षमा की प्रवृत्ति नहीं थी, वो चोरी लूट पाट के उद्देश्य से आये थे, गुस्सैल थे, विवेक की उनमे कमी थी, मन की शुद्धता नही थी, उनकी इन्द्रियां वश में नही थी अतः वे “अधर्मी” यानी १० (दस) गुणों को ना धारण करने वाले थे |

इसमें कहीं पर भी किस देवता की पूजा हो नहीं बताया गया क्यूंकि आस्था व्यक्ति विशेष का लक्षण है...

गौतम बुद्ध ने “बुद्धिज़्म” का प्रचार नहीं किया था उन्होंने भी धर्म का प्रचार किया, जैन सन्यासी परंपरा में भी धर्म का प्रचार होता है “जैनिज़्म” का नहीं, हिन्दू सन्यासी भी धर्म का प्रचार करतें हैं “हिंदूइस्म” का नहीं |

एक माँसाहारी धार्मिक नहीं हो सकता क्यूंकि उसने क्षमा और दया नहीं है, वह अपनी स्वादेंद्री को नियंत्रित नहीं कर रहा और ना ही उसमे यह विवेक है की प्रत्येक जीव का जीवन प्रिय है एवं किसी को मारना हिंसा है, हिंसा सत का अनुसरण नहीं करती है |

अब आते हैं वेद क्या है ? वेदों में क्या लिखा है ? और वैदिक धर्म और वर्तमान हिंदुत्व में भेद कैसा है?

वेद, वेद शब्द का अर्थ है जानना, वेद से ही “विदित” शब्द बना है , जिसका अर्थ है जाना हुआ , और इसी से वैदिक शब्द बना है जिसका अर्थ है “जानने का माध्यम” (जैसे धार्मिक, कार्मिक और मार्मिक माध्यम है वैसे ही वेद एक क्रिया, और वैदिक उस क्रिया को करने का माध्यम है )

अतः इस से स्पष्ट है की वेद में किसी प्रकार का ज्ञान है.. अब वह ज्ञान क्या है ?

तो आओ जानतें हैं . चार वेद हैं –

ऋग्वेद – यजुर्वेद – सामवेद और अथर्ववेद

ऋग्वेद में ऋचाओं को जानना व समझना

अब यह ऋचा क्या है ? ऋच का अर्थ है चमकना या ओझपूर्ण इसी कारण से उच्चतम श्रेणी के वैज्ञानिकों को पुरातन काल में ऋषि कहा जाता था क्यूंकि उनके पास चमकता हुआ ज्ञान हुआ करता था या कहा जा सकता है की उनके पास ओझपूर्ण सत्य का ज्ञान था अतः वै ऋषि हुए, जिन्होंने वेदों का १२ वर्ष या अधिक समय तक (12 वर्ष) अध्ययन किया वे पंडित कहाए किन्तु जिन्होंने वेदों को समझा और अपनाया वे ऋषि कहाए , उस ओझपूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण वह पुस्तक ऋग्वेद कहलाई, अब हम समझ गए की ऋग्वेद में कोई अत्यंत ज्ञान की बात लिखी हुई है पर क्या ?

ऋग्वेद में परम-आत्मा (अपने अन्दर के परम ) को जगाने के विषय में अनेको ऋचाएं दी गयीं हैं, आप समझेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? पर उसी समय आप एक मनोवैज्ञानिक के पास जा कर अपने मन को नियंत्रित और सम्यक करने को सही मानतें हैं ? ऐसा ही है न ? वास्तव में वेद मनुष्य को मनोवैज्ञानिक – वैज्ञानिक – आर्थिक – सामाजिक – आध्यात्मिक एक कार्मिक चक्र में बाँधने का कार्य करतें हैं, यही कारण है की एक सन्यासी कर्म के बंधन से मुक्त हो यज्ञ एवं हवन का त्याग कर देता है |

बंधने से क्या मिलेगा ? जब दो बैल अपनी गाडी से बंधे रहतें हैं तो गाडी को गति मिलती है उसी प्रकार से वेदों का ज्ञान एक वाहक है, वह आपके मन की गाडी से बंधी रहती है एवं आपके मन की गाडी को सही दिशा में गति देने का कार्य करती है जिस से की सभ्यता का विकास होता है | अतः वेदों को पवित्र माना गया है जो की हमें    मनोवैज्ञानिक – वैज्ञानिक – आर्थिक – सामाजिक – आध्यात्मिक एक कार्मिक चक्र में बाँधने का कार्य करतें हैं, जो की मानव के चहुंमुखी विकास के लिए आवश्यक भी है |

यजुर्वेद में यजुस को जानना और समझना

अब आप यह कहेंगे की यह यजुस क्या होता है ? यजुस का अर्थ है ज्ञान देने वाले मन्त्र, यानी ज्ञान को वहन करने वाले शब्द, यानी इस वेद में ज्ञान को ले जाने वाले मंत्र है, यह उसी प्रकार है जैसे की एक गणित का सूत्र अपने साथ सवाल को हल करने की क्षमता रखता है यदि वह सवाल और उसको हल करने के लिए उपयुक्त सूत्र का प्रयोग किया जाए | अतः यज्ञ(जो ज्ञान देता है ) उसके मंत्र यजुर्वेद में है | सूर्य की पृथ्वी से दुरी नक्षत्रों का ज्ञान, जल के ठिकाने कहाँ कहाँ है यह सभी वेदों में लिखा हुआ है, दिशा और दिशा सूचक यन्त्र का प्रयोग, और राजाओं के कार्य, प्रजा के कार्य, प्रजा का पालन कैसे हो यह भी वेदों में भलीभांति दिया हुआ है |

सामवेद में साम को जानना और समझना

अब यह साम क्या है भला ? आप सर पकड़ कर बैठे होंगे की यह साम क्या है ?

साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग हम कितने ही समय से करते आये हैं और सामवेद में जो साम है वह संस्कृत शब्द सामन से बना है जिसका अर्थ है गाना अथवा तारीफ करना,

साम दाम दंड भेद में भी साम = तारीफ करना, दाम = पैसे देना, दंड = सजा देना, भेद = कोई छुपी बात जान कर उसे “ब्लैकमेल” करने को कहा गया है, अतः सामवेद में गायनकला का वर्णन है, चूँकि यह गायन ईश्वर की तारीफ में किया गया है अतः यह सामवेद कहाया, सामवेद में व्याकरण, गायन, वादन एवं इस से जुड़े हुए श्लोकों का वर्णन किया गया है जो की आज भी उसी प्रकार से संसार में विद्यमान है क्यूंकि आप सात सुरों को नहीं बदल पाएंगे, ना भी किसी तंतु के एक विशेष आवृति की ध्वनि को आप बदल पायेंगे, अतः सामवेद भी एक विज्ञानं है जिसका सम्बन्ध अनादिकाल से मानव और उस से पहले की जातियों यहाँ तक की जीवन से पूर्व से चला आ रहा है |

नाद धिनम जगत सर्वं यानी यह सम्पूर्ण संसार नाद(वायब्रेशन) के कारण ही गतिमान है, चूँकि यदि वाइब्रेशन नहीं होता दो इलेक्ट्रोंश में तो विद्युत (बिजली ) नहीं होती, यदि यह कम्पन नही होता तो नदियाँ नहीं बहती ना ही यह पवन चलती , ना ही सूर्य तपता और न ही हमारा अस्तित्व (होने का भाव)

अतः सामवेद हमें नाद के विषय में और उस से संबंधित सभी तथ्य से अवगत करवाता है |  

तथा अथर्व वेद में अथर्व को जानना और समझना बताया गया है  

अथर्व यानी जीवन को चलाने का रास्ता (अथर्वण) यानी जीवन जीने का विज्ञान,

इस वेद में आज कल की मेडिकल साइंस (चिकित्सा विज्ञान) और जीवन के लिए उपयोगी बातें बताई गयी है, अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है जो की हमें लाइफ-साइंस के रूप में रोगी (रुग्ण) मनुष्यों के लिए (पथ्य) एवं विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटी के सन्दर्भ में ज्ञान देता है |

अतः ऊपर बताये गए चार वेदों का क्या अर्थ है, वे क्यूँ आवश्यक हैं एवं वेद है क्या , इन सभी प्रश्नों का अति सरल भाषा में आपको मैंने अर्थ बताया, अब प्रश्न यह उठता है की यदि हमारे पास इतना ज्ञान है, और इतने ज्ञान के साथ साथ धर्म भी है तो आज भारत की यह स्थिति क्यूँ है ?

सीधा सा उत्तर है यदि आप एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने अन्दर इतना अधिक ज्ञान समाहित कर के रख रहें हैं आपकी प्रवृत्ति भी साधुओं वाली है तो अन्य दुष्ट मनुष्य आपकी इस नैतिकता का अवश्य ही लाभ लेने की दुष्टता करेगा, वही मुग़ल शासकों ने किया, वही अंग्रेजों ने किया और वही आज कल के तथाकथित पाश्चात्य सोच रखने वाले विद्वान कर रहें हैं , नीचा दिखाने का प्रयत्न, अतः मानवीय स्वभाव के अनुसार, हमने जो देख लिया उसे मान लिया, समझने के लिए नहीं हमने भीड़ में मिलने के लिए उन्ही के जैसा व्यव्हार करना आरम्भ कर दिया अतः हम आज केवल “हिन्दू-सिख-बोद्ध अथवा जैन”

हो कर रह गए जो कभी “धार्मिक” हुआ करते थे , भारत ने सदैव से ही धर्म का प्रचार किया है आस्था विशेष का नहीं अतः यही कारण  है की प्राचीन भारत में “एकलिंगी” समुदाय जो केवल शिव की सत्ता में अस्था रखते थे भी थे, वैष्णव भी, शैव भी और साथ में वामाचारी- दक्षिणाचारी भी, यही नहीं

“यथा जीवत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत भस्मी भूतस्य शरीरं पुनः आगत कुतः”

जब तक जियो सुख से जियो, ऋण करो और घी पियो, एक दिन शरीर को भस्म हो जाना है, वापस नहीं आएगा ....

जैसी चार्वाक (चार पंक्तिया बोलने वाला मनुष्य) सोच को भी सराहना मिली, बाकि यह ध्यान रहे यहाँ पर उपमाओं का प्रयोग हुआ है ऋण कर के घृत पीना यानी माता पिता ने जन्म दिया वह ऋण, वृक्षों ने श्वास दी और फल फूल दिए वह ऋण और अन्य ऐसे उपकार जो अनेको जीवों ने हम पर किये हैं, और घी पिने से अर्थ है की ज्ञान को पियो, समझो सीखो |

अब आते हैं वर्तमान हिन्दुत्व की परिभाषा पर ...

वर्तमान हिन्दू संघर्षशील है, कार्य प्रणाली, वैचारिक मध्यस्थता, वैचारिक मतभेद, सरकार एवं अन्य आस्था के लोगों को सम्मान देने के फेरे में अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है, ना उसे धर्म का अर्थ पता है ना ही धर्म का महत्व, कलयुग पुराण के अनुसार, मनुष्य अपने ही भविष्य को अन्धकार में धकेल रहा है, उसे यह नहीं पता की नवीन अविष्कार करने से विकास परिभाषित नहीं होता, वेदों में दिए ज्ञान से एक सभ्य समाज बनाने से ही विकास परिभाषित होता है, अतः अन्य मनुष्यों की भांति ही वर्तमान हिन्दू समाज (अथवा वे लोग जो हिन्दुस्थान में रहतें हैं ) मतिभ्रमित है और मन के स्थान पर अपने शरीर एवं अपने अर्थ के विकास में लगा हुआ है, जबकि यह सब करने के पश्चात् भी वह सुखी नहीं रह सकता यह वह जानता है | वेदों ने मनुष्य के चार लक्ष्य निर्धारित किये जिनमे पहला

धर्म, दूसरा अर्थ (यानी धन ), तीसरा “काम” यानी संतति की प्राप्ति, शारीरिक सुख और चौथा मोक्ष है, यानि मनुष्य को इन चारों के लिए अपना जीवन समर्पित करना चाहिए, इन सब में धर्म को प्रथम स्थान दिया गया है क्यूंकि धर्म ही मनुष्य को एक मनुष्य बनता है, धर्म के बिना मुनष्य केवल एक पशु के समान है, जो खा लेता है सो लेता है, आवश्यकता पड़ने पर काम कर लेता है और सम्पूर्ण जीवन में संघर्षपूर्ण रहता है जो की केवल दुर्गति की और ले जाने का कार्य करेगा अतः हे ! मनुष्यों धार्मिक बनों और धर्म को अपने अंतः-मन में धारण करो |

इस से आप एक बात तो समझ ही गएँ होंगे की ईसाई धर्म नहीं है, मुस्लिम धर्म नहीं है, ना ही यहूदी धर्म है, धर्म केवल एक ही है जो सभी मनुष्यों को धारण करना आवश्यक है, और उसके 10 नियम है, आस्था और धर्म में निशा-उषा का अंतर है, धर्म में आस्था हो सकती है किन्तु आस्था धर्म नहीं है |

कृपया आपके सुझाव अथवा प्रश्न नीचे कमेंट बॉक्स में लिखें, और इस ब्लॉग को शेयर करें अतः अधिक से अधिक धार्मिक मनुष्य इसका लाभ ले पायें |

|| ॐ शिव || जयतु जयतु हिन्दू || जय धर्मं साम्राज्य || लोकाः समस्था सुखिनो भवन्तु ||

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