Mahabharat Importance ,दो महायोद्धा जो महाभारत युद्ध में शामिल नहीं हुए

दो महायोद्धा जो महाभारत युद्ध में शामिल नहीं हुए
महाभारत हमारे देश का सबसे बड़ा धर्म युद्ध माना जाता है। इसमें सिर्फ हमारे भारत हमारे देश के राजा ही नहीं नहीं सारी विदेशी सेना भी शामिल हुई थी। हमारे जो भारतवर्ष के राजा थे वह दो हिस्सों में बंट गए थे। कुछ पांडवों की ओर से लड़ रहे थे और कुछ कौरवों की ओर से। बहुत बड़ा यह धर्म युद्ध था लेकिन इसके अंदर सिर्फ दो ही राजा ऐसे थे जिन्होंने महाभारत युद्ध के अंदर भाग नहीं लिया। ऐसा कोई भी राजा नहीं था जो महाभारत के युद्ध के अंदर सम्मिलित ना हो लेकिन दो ही ऐसे लोग हैं जो इस युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए थे।
महाभारत युद्ध में के ज्यादा सेना कौरवों की थी और सबसे बलवान जो राजा थे वह कौरवों की ओर से खड़े हुए थे। कहा जाता है कि सिर्फ हमारे देश के राजा ही नहीं बल्कि विदेशी सेना कौरवों की ओर से लड़ रही थी। इसके अलावा जो उस समय की सबसे शक्तिशाली सेना मानी जाती थी वह थी भगवान श्री कृष्ण की नारायणी सेना वह भी कौरवों की ओर से लड़ रही थी। पांडवों के खिलाफ भगवान श्री कृष्ण की नारायणी सेना लड़ रही थी और पांडवों की ओर से सिर्फ भगवान श्री कृष्ण और उनके कुछ मित्र राजा थे। इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं होगा कि हम कहें कि कौरवों की ही विजय निश्चित थी लेकिन आखिर में पांडवों की जीत हुई इसका कारण था वह हम सभी जानते हैं भगवान श्री कृष्ण।
ऐसे 2 लोग थे जो युद्ध के अंदर सम्मिलित नहीं हुए थे वह थे भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम और भगवान श्री कृष्ण की पत्नी रुकमणी के बड़े भाई रुक्मी। यह दो ही लोग ऐसे थे जो महाभारत युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए थे। इसका कारण है कि बलराम जी ने भीम और दुर्योधन दोनों को ही द्वंद्व युद्ध और गद्दा युद्ध सिखाया था। दोनों ही बलराम जी के शिष्य थे। युद्ध होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण को बलराम जी ने समझाया कि पांडव और कौरव दोनों ही हमारे सखी संबंधी हैं और दोनों ही हमारे मित्र हैं यदि मैं ऐसा करता हूं तो हम धर्म संकट में घिर जाएंगे और जो भी मनुष्य धर्म संकट के अंदर गिर जाता है उसका पतन निश्चित है।
भगवान बलराम ने भगवान श्रीकृष्ण को कई बार समझाया लेकिन भगवान श्रीकृष्ण अपने दायित्व से बंधे हुए थे अगर वह नहीं होते तो कभी भी पांडव विजयी नहीं होते और धर्म की कभी जीत नहीं होती। महाभारत युद्ध के पूर्व बलराम जी पांडवों की छावणी में गए थे तो वह जब वहां गए तो सभी पांडवों ने उनका स्वागत किया। बलराम जी युधिष्ठिर के बाजू में जाकर बैठ गए और उन्होंने युधिष्ठिर को कहा कि मैंने श्रीकृष्ण को कई बार समझाया कि आप इस युद्ध में भाग नहीं ले क्योंकि यह कौरवों के साथ अधर्म होगा क्योंकि दोनों ही हमारे सगे-संबंधी हैं और वह दोनों ही हमारे लिए एक समान है।
बलराम ने आ गई युधिष्ठिर से कहा कि मैंने दुर्योधन को भी शिक्षा दी है और साथ ही साथ मैंने भीम को भी शिक्षा दी है तो युधिष्ठिर ने बलराम से कहा कि आप अगर ऐसा चाहते हैं कि कौरवों के साथ अन्याय ना हो तो आप कौरवों की ओर से हमारे खिलाफ लड़ सकते हैं तो हमको इसका बुरा नहीं लगेगा क्योंकि आप धर्म का साथ देंगे आप के दृष्टिकोण से। तो बलराम जी ने यह कहा कि मैं पांडवों की ओर से नहीं लड़ सकता क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण आपके साथ हैं और मैं श्रीकृष्ण की शक्ति से परिचित हैं इसलिए आप की ओर से लड़ने का कोई मतलब नहीं बनता और मैं कौरवों की ओर से भी नहीं लड़ सकता क्योंकि मैं श्रीकृष्ण के खिलाफ नहीं जा सकता। मैं अपने भाई के साथ नहीं लड़ सकता।
बलराम ने कहा आप सब की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है कि आप अपने भाइयों के साथ आपस में लड़ रहे हैं पर मैं ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए बलराम जी ने यह निश्चय किया कि भाइयों के बीच में जो यह खून बहेगा वह मैं देख नहीं पाऊंगा और ना ही मैं किसी के साथ अन्याय होता देख पाऊंगा इसलिए मैं अभी तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं। इसलिए बलराम जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ वह तभी तीर्थ यात्रा पर चले गए थे और वह तभी लौटे थे जब भीम और दुर्योधन के बीच आख़िरी द्वंद युद्ध चल रहा था।
दूसरे थे रुकमणी के बड़े भाई रुक्मी। उन्होंने इसलिए इस युद्ध के अंदर भाग नहीं लिया था क्योंकि उनकी ना तो श्री कृष्ण के साथ बनती थी,ना ही उनकी द्वारिका के साथ अच्छे संबंध थे और ना ही हस्तिनापुर के साथ यानी दुर्योधन के साथ इसलिए उन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था।

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