बच्चों की प्रतिभा कैसे बढ़ाएं? How to raise children's talent?
*"आर्यम-सूत्र"*
आज के युग में अक्सर सभी माता-पिता अपने बच्चों को कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं ऐसे माता-पिताओं के बच्चों के जीवन थिरता कभी नही आती! संतुलन-ठहराव कभी नही आता! उनके जीवन में शांति कभी नही आती। किसी व्यक्तित्व के विकास हेतु जिन आयामों की आवश्यकता होती है उनमें कुछ महत्वपूर्ण मिसिंग रह जाता है, छूट जाता है बिल्कुल उसी तरह जिस प्रकार किसी भगोने में दही जमाने के लिए ढूध रखा है और उस भगोने को लगातार हम हिलाते रहें उसे थिर न रहने दें! तो उस दूध में दही कभी नही जम पाएगा! वैसे ही हमारे व्यक्तित्व में बहुत से गुण स्थापित करने के लिए या उन गुणों को प्रस्फुटित होने के लिए या फिर उन सभी गुणों को विकास के उच्चतम आयामों तक जाने के लिए एक विराम-ठहराव की आवश्यकता होती है। कुछ क्षण शांति पूर्ण ढंग से बैठ जाने की आवश्यकता होती है ताकि बच्चों के समग्र व्यक्तित्व का संतुलित विकास हो सके। बच्चों को मशीन की भांति यांत्रिकी रोबोट मत बनने दीजिए और न ही आप उन्हें बनाने की कोशिश कीजिए।
'ओशो' जब बोलते थे तो उनके हाँथ की कलाई में बंधी रीको की घड़ी बंद हो जाती थी जो हाँथ की नब्ज़-कंपन व हाँथ की गति से काम करती थी, क्योंकि 'वे' थिर हो कर काम करते थे। जब हम शांत और थिर होते हैं तो पूरी ऊर्ज़ा का प्रवाह हमारे जीवन के संतुलन और विकास में सहयोगी संजीवनी की तरह काम करती है।
यदि हमारी चाह है कि हमारे बच्चे बहुत मेधावी हों, प्रतिभाशाली हों, उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत हो! ताकि अपने जीवन में वे जो करना चाहें वह कर पाएं तो उन्हें "शांत"रहना होगा। उन्हें कम से कम चीज़े सिखानी चाहिए ताकि वे ज़्यादा सीख पाएं। भरे हुए पात्र में अगर कुछ डाला जाए तो सबकुछ बाहर की ओर ही आएगा! अगर उस बर्तन में कुछ भी डालना है तो उसके लिए थोड़ी रिक्तत्व या थोड़ा स्पेस चाहिए होता है ताकि हम उसमें जो भी डालें वह उस पात्र में आ जाए। अगर पात्र पहले से ही पूरा भरा हुआ है तो हम इसमें कुछ भी नही डालेंगे और किसी कारणवश यदि डाल भी दी तो उस भरे पात्र में से एक न एक वस्तु बाहर आएगी ही या तो पहले डाली हुई या बाद में डाली हुई। समस्याओं को गिनाने मात्र से कर्तव्यों की इतिश्री नही होती है। मेरी देशना,बातें, प्रार्थनाएँ, विचार, अनुमोदन, निवेदन यदि मनुष्य के जीवन के रूपांतरण की कीमिया बन जाएं तभी मेरे ध्येय की पूर्ति और मेरी सफलता होगी। ऐसे में एक विचार बहुत सहज आता होगा कि- इसका समाधान क्या है कि हम अपने बच्चों को रोबोट बनने से कैसे रोकें? इसके हल हेतु प्रत्येक अभिभावक को अपने बच्चों की जीवनशैली में-उनकी दिनचर्या में कुछ घंटे अवश्य सुनिश्चित करने चाहिए जिसमें उन्हें शांत-मौन बैठना सीखाएं। जब बच्चे मौन रहना सीख जाते हैं तो बहुत तेजी से उनकी बुद्धि का विकास होता है।
साधना पथ में साधकों ने मौन को अति उच्च स्थान दिया गया है। भारतीय वांग्मय में कई ऋषि-मुनियों ने 'मौन' को इतना महत्व दिया है कि वहीं से मौन व्रत की प्रथा का दिग्दर्शन भी हमें मिलता है। समस्याएं अधिक बोलने से प्रारंभ होती हैं कम बोलने से कभी नही होती हैं। उक्ति और मुहावरों में तो स्पष्टतः प्रचलन में आने वाला वाक्य है कि- 'एक चुप सौ सुख"। जीवन के अध्यायों में कभी-कभी चुप रहने से अनेक सुख उदित होते हैं। विशेषकर जिन दंपति व परिवारों में छोटे बच्चे हैं वे सब अपने बच्चों को मशीन न बनाएं बल्कि उनकी पूरी दिनचर्या में से कुछ समय उनके अभ्यास में अवश्य लाएं! जब वे बिना कुछ किए बिल्कुल शांत मन से बैठें यह ध्यान की प्राथमिक अवस्था है, यहीं से ध्यान प्रारम्भ होता है। तब बच्चे अपने जीवन के बारे में थिरता को प्राप्त होते हैं और वहीं से ही अस्तित्व में ऊर्जा मान चीज़ें उनके जीवन को अंगीकार करना शुरू करती हैं।
'ओशो' जब बोलते थे तो उनके हाँथ की कलाई में बंधी रीको की घड़ी बंद हो जाती थी जो हाँथ की नब्ज़-कंपन व हाँथ की गति से काम करती थी, क्योंकि 'वे' थिर हो कर काम करते थे। जब हम शांत और थिर होते हैं तो पूरी ऊर्ज़ा का प्रवाह हमारे जीवन के संतुलन और विकास में सहयोगी संजीवनी की तरह काम करती है।
यदि हमारी चाह है कि हमारे बच्चे बहुत मेधावी हों, प्रतिभाशाली हों, उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत हो! ताकि अपने जीवन में वे जो करना चाहें वह कर पाएं तो उन्हें "शांत"रहना होगा। उन्हें कम से कम चीज़े सिखानी चाहिए ताकि वे ज़्यादा सीख पाएं। भरे हुए पात्र में अगर कुछ डाला जाए तो सबकुछ बाहर की ओर ही आएगा! अगर उस बर्तन में कुछ भी डालना है तो उसके लिए थोड़ी रिक्तत्व या थोड़ा स्पेस चाहिए होता है ताकि हम उसमें जो भी डालें वह उस पात्र में आ जाए। अगर पात्र पहले से ही पूरा भरा हुआ है तो हम इसमें कुछ भी नही डालेंगे और किसी कारणवश यदि डाल भी दी तो उस भरे पात्र में से एक न एक वस्तु बाहर आएगी ही या तो पहले डाली हुई या बाद में डाली हुई। समस्याओं को गिनाने मात्र से कर्तव्यों की इतिश्री नही होती है। मेरी देशना,बातें, प्रार्थनाएँ, विचार, अनुमोदन, निवेदन यदि मनुष्य के जीवन के रूपांतरण की कीमिया बन जाएं तभी मेरे ध्येय की पूर्ति और मेरी सफलता होगी। ऐसे में एक विचार बहुत सहज आता होगा कि- इसका समाधान क्या है कि हम अपने बच्चों को रोबोट बनने से कैसे रोकें? इसके हल हेतु प्रत्येक अभिभावक को अपने बच्चों की जीवनशैली में-उनकी दिनचर्या में कुछ घंटे अवश्य सुनिश्चित करने चाहिए जिसमें उन्हें शांत-मौन बैठना सीखाएं। जब बच्चे मौन रहना सीख जाते हैं तो बहुत तेजी से उनकी बुद्धि का विकास होता है।
साधना पथ में साधकों ने मौन को अति उच्च स्थान दिया गया है। भारतीय वांग्मय में कई ऋषि-मुनियों ने 'मौन' को इतना महत्व दिया है कि वहीं से मौन व्रत की प्रथा का दिग्दर्शन भी हमें मिलता है। समस्याएं अधिक बोलने से प्रारंभ होती हैं कम बोलने से कभी नही होती हैं। उक्ति और मुहावरों में तो स्पष्टतः प्रचलन में आने वाला वाक्य है कि- 'एक चुप सौ सुख"। जीवन के अध्यायों में कभी-कभी चुप रहने से अनेक सुख उदित होते हैं। विशेषकर जिन दंपति व परिवारों में छोटे बच्चे हैं वे सब अपने बच्चों को मशीन न बनाएं बल्कि उनकी पूरी दिनचर्या में से कुछ समय उनके अभ्यास में अवश्य लाएं! जब वे बिना कुछ किए बिल्कुल शांत मन से बैठें यह ध्यान की प्राथमिक अवस्था है, यहीं से ध्यान प्रारम्भ होता है। तब बच्चे अपने जीवन के बारे में थिरता को प्राप्त होते हैं और वहीं से ही अस्तित्व में ऊर्जा मान चीज़ें उनके जीवन को अंगीकार करना शुरू करती हैं।
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