श्रीराम के लिए हनुमानजी ने धारण किए विविध रूप ।
ॐ नमो वायुपुत्राय भीमरूपाय धीमते।
नमस्ते रामदूताय कामरूपाय श्रीमते।।
अर्थात्–ॐ भयंकर रूपधारी, बुद्धिमान, वायुपुत्र और स्वेच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ श्रीरामदूत हनुमान को नमस्कार है।
नमस्ते रामदूताय कामरूपाय श्रीमते।।
अर्थात्–ॐ भयंकर रूपधारी, बुद्धिमान, वायुपुत्र और स्वेच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ श्रीरामदूत हनुमान को नमस्कार है।
अपने इष्ट श्रीराम की कार्यसिद्धि के लिए रुद्र बने हनुमान। भगवान श्रीराम के कार्य-सम्पादन के लिए व दास्य-भक्ति का रस चखने के लिए परब्रह्म रुद्र ने हनुमानजी के रूप में शरीर धारण किया था।
ॐकार में मकार उन्हीं का रूप है, मकार शिव का वाचक है–
मकाराक्षरसम्भूत: शिवस्तु हनुमान् स्मृत:।
हनुमानजी की विशेषता यह थी कि वे बड़े ही सुन्दर और विभिन्न प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे।
मकाराक्षरसम्भूत: शिवस्तु हनुमान् स्मृत:।
हनुमानजी की विशेषता यह थी कि वे बड़े ही सुन्दर और विभिन्न प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे।
श्रीहनुमान के रूप का निश्चित आकार-प्रकार नहीं है। कहीं वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं तो कहीं बृहत् से भी बृहत्। हनुमानजी के विशाल शरीर की छाया दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी तथा वेगयुक्त थी।
‘हनुमानजी का अनुसरण करने वाली उनकी वह छाया खारे पानी के समुद्र में पड़ी हुई श्वेत बादलों की पंक्ति के समान लगती थी।’
हनुमानजी के सूक्ष्म, विकट और भीम रूप
हनुमानजी के सूक्ष्म, विकट और भीम आदि अनेक रूपों का वर्णन मिलता है।
हनुमानजी के सूक्ष्म, विकट और भीम रूप
हनुमानजी के सूक्ष्म, विकट और भीम आदि अनेक रूपों का वर्णन मिलता है।
उन्होंने अशोकवाटिका में सीताजी को सूक्ष्मरूप दिखाया, विकटरूप धारणकर लंका जलायी तथा भीमरूप प्रकट कर असुरों का संहार किया–
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे। (हनुमानचालीसा)
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे। (हनुमानचालीसा)
सीताजी का पता लगाने के लिए लंका जाते समय सुरसा के विशाल शरीर और मुख को देखकर हनुमानजी ने अत्यन्त लघुरुप धारण कर लिया–’अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।’ (मानस ५।१।५)
लंका में प्रवेश करते समय हनुमानजी ने मशक के समान अति लघुरूप धारण किया–
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। (रामचरितमानस ५।४।१)
लंका में प्रवेश करते समय हनुमानजी ने मशक के समान अति लघुरूप धारण किया–
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। (रामचरितमानस ५।४।१)
अशोकवाटिका में सीताजी के समक्ष प्रकट होते समय हनुमानजी के रूप का बहुत ही भव्य वर्णन ‘श्रीरंगनाथ रामायण’ में किया गया है–
‘हनुमानजी अंगुष्ठमात्र का आकार ग्रहण कर उस अशोकवृक्ष पर चढ़ गए।
‘हनुमानजी अंगुष्ठमात्र का आकार ग्रहण कर उस अशोकवृक्ष पर चढ़ गए।
बालक के रूप में वटवृक्ष के पत्रों में शयन करने वाले भगवान विष्णु के समान वे श्रेष्ठ वानर उस वृक्ष की घनी शाखाओं में बड़ी कुशलता के साथ छिपकर बैठ गए और उन विशालाक्षी सीताजी को बार-बार ध्यान से देखने लगे।’
किष्किन्धा के लिए प्रस्थान करते समय सीताजी से चूड़ामणि लेने से पहले उनका विश्वास प्राप्त करने के लिए हनुमानजी ने अपना विश्वरूप दिखाया जो विन्ध्याचल के समान विशाल दीख पड़ता था।
हनुमानजी का वज्रकाय स्वरूप
वाल्मीकिरामायण में उनके शरीर को वज्र के समान सुदृढ़ बतलाया गया है, इसलिए उन्हें ‘वज्रकाय’ भी कहते हैं। वज्रदेहरूप में उनकी स्तुति का मन्त्र है–‘विहंगमाय शर्वाय वज्रदेहाय ते नम:।।’
वाल्मीकिरामायण में उनके शरीर को वज्र के समान सुदृढ़ बतलाया गया है, इसलिए उन्हें ‘वज्रकाय’ भी कहते हैं। वज्रदेहरूप में उनकी स्तुति का मन्त्र है–‘विहंगमाय शर्वाय वज्रदेहाय ते नम:।।’
हनुमानजी के भयानक रूप का वर्णन
समुद्र लांघने के लिए हनुमानजी ने जो भयानक रूप धारण किया, उसका बहुत सुन्दर वर्णन वाल्मीकीय रामायण में किया गया है–
‘जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन समुद्र बढ़ता है, उसी प्रकार भगवान श्रीराम की कार्यसिद्धि के लिए श्रीहनुमान बढ़ने लगे।
समुद्र लांघने के लिए हनुमानजी ने जो भयानक रूप धारण किया, उसका बहुत सुन्दर वर्णन वाल्मीकीय रामायण में किया गया है–
‘जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन समुद्र बढ़ता है, उसी प्रकार भगवान श्रीराम की कार्यसिद्धि के लिए श्रीहनुमान बढ़ने लगे।
समुद्र लांघने की इच्छा से उन्होंने अपने शरीर को बहुत बढ़ा लिया और अपनी भुजाओं एवं चरणों से उस पर्वत को दबाया तो वह पर्वत कांप उठा……..जब उन्होंने उछाल मारी तो उनकी जांघों के वेग से टूटे हुए वृक्ष इस प्रकार उनके पीछे चले, जैसे राजा के पीछे सेना चलती है।’
तुलसीदासजी का कहना है कि ‘जिस पहाड़ पर हनुमानजी चरण रखते थे, वह उसी क्षण पाताल में चला जाता था’–
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।। (मानस ५।१।४)
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।। (मानस ५।१।४)
हनुमानजी वानरसेना से कहते हैं–
‘जिनके नाम का एक बार स्मरण करने से ही मनुष्य अपार संसार-सागर को पारकर उनके धाम को चला जाता है, उन्हीं भगवान श्रीराम का दूत, उनके हाथ की मुद्रिका लिए हुए, हृदय में उन्हीं का ध्यान करता हुआ मैं यदि इस छोटे से समुद्र को लांघ जाऊं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।’
‘जिनके नाम का एक बार स्मरण करने से ही मनुष्य अपार संसार-सागर को पारकर उनके धाम को चला जाता है, उन्हीं भगवान श्रीराम का दूत, उनके हाथ की मुद्रिका लिए हुए, हृदय में उन्हीं का ध्यान करता हुआ मैं यदि इस छोटे से समुद्र को लांघ जाऊं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।’
साहब तें सेवक बड़ो जो निज धरम सुजान।
राम बांधि उतरे उदधि लांघि गए हनुमान।।
हनुमानजी कहीं वानरदेह में तो कहीं मानवदेह में हुए प्रकट
गंधमादन पर्वत पर भीम हनुमानजी का विन्ध्यपर्वत के समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर घबरा गए। हनुमानजी ने भीम से कहा कि ‘हमलोग तो पशुयोनि के प्राणी है’।
राम बांधि उतरे उदधि लांघि गए हनुमान।।
हनुमानजी कहीं वानरदेह में तो कहीं मानवदेह में हुए प्रकट
गंधमादन पर्वत पर भीम हनुमानजी का विन्ध्यपर्वत के समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर घबरा गए। हनुमानजी ने भीम से कहा कि ‘हमलोग तो पशुयोनि के प्राणी है’।
श्रीरामचरितमानस के अनुसार किष्किन्धा में श्रीराम से मिलने हनुमानजी विप्र-वेष धारण करके गए थे–‘विप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ।’
हनुमानजी ने विप्ररूप धारणकर ही विभीषण से भेंट की थी–‘बिप्ररूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।’
हनुमानजी ने विप्ररूप धारणकर ही विभीषण से भेंट की थी–‘बिप्ररूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।’
अध्यात्मरामायण के अनुसार हनुमानजी नन्दिग्राम में भरतजी को भगवान श्रीराम के आगमन का संदेश सुनाने मनुष्य-शरीर धारणकर गए थे।
चित्रकूट में तुलसीदासजी को दिया दर्शन
चित्रकूट में गोस्वामी तुलसीदासजी को श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन के बाद श्रीहनुमानजी ने प्रकट होकर बतलाया था कि उन्हें श्रीराम ने दर्शन दिया पर वे उन्हें पहिचान न सके।
चित्रकूट में गोस्वामी तुलसीदासजी को श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन के बाद श्रीहनुमानजी ने प्रकट होकर बतलाया था कि उन्हें श्रीराम ने दर्शन दिया पर वे उन्हें पहिचान न सके।
तुलसीदासजी ने हनुमानजी के रूप का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है–
स्वर्न-सैल-संकास कोटि रबि-तरुन-तेज-घन।
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन।।
पिंग नयन, भृकुटी कराल, रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन।। (श्रीहनुमानबाहुक)
स्वर्न-सैल-संकास कोटि रबि-तरुन-तेज-घन।
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन।।
पिंग नयन, भृकुटी कराल, रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन।। (श्रीहनुमानबाहुक)
समर्थ गुरुरामदास को श्रीहनुमान ने दिखाया अपना महाकाय रूप। संत समर्थ रामदास प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त से सूर्योदय तक गोदावरी के जल में खड़े होकर श्रीराम-नाम का जप किया करते थे। उस समय तट पर स्थित अशोकवृक्ष पर एक बंदर बैठा रहता था। बारह वर्षों तक यह क्रम चलता रहा।
तेरह करोड़ जप पूर्ण होने पर रामदासजी को ध्यान में ऐसा अनुभव हुआ कि वह बंदर उनके सामने आकर उनके हृदय में प्रवेश कर गया। जब उन्होंने नेत्र खोले, तब सामने एक बंदर को देखा। कुछ ही देर में उस बंदर ने महाकाय रूप धारण कर लिया।
इस प्रकार श्रीहनुमान ने रामदासजी को अपने स्वरूप का दर्शन करा कर कृतार्थ कर दिया।
भगवान शंकर कहते हैं–
हनूमान सम नहिं बड़भागी।
नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।। (मानस ७।५०।४-५)
हनूमान सम नहिं बड़भागी।
नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।। (मानस ७।५०।४-५)
स्वयं वानर होने पर भी दास्य-भक्ति के प्रताप से हनुमानजी देवता बन गए। यह सिद्धि दूसरा अन्य कोई प्राप्त नहीं कर सका।
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