जीवित्पुत्रिका या 'जिउतिया' व्रत की महिमा


संतानों के स्वस्थ, सुखी और दीर्घायु होने के लिए माताएं जीवित्पुत्रिका व्रत करती हैं. कुछ इलाकों में इसे 'जिउतिया' भी कहा जाता है. यह आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन किया जाता है.
जिउतिया व्रत की कथा:
माताएं इस व्रत को अपार श्रद्धा के साथ करती हैं. जीवित्पुत्रिका व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुडी है. कथा इस तरह है. गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बड़े उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नाम की राजकन्या से विवाह हो गया.
एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, 'मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षीराजगरुड़ के सामने नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है.'
जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, 'डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढककर वध्य-शिला पर लेटूंगा.' इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड़ बडे वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहनको पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए.
अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बड़े आश्चर्य में पड़ गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड़जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड़जी ने उनको जीवनदान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई. तभी से पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहनकी पूजा की प्रथा शुरू हो गई.
आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहनकी पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहनकी पूजा करती हैं और कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के बाद किया जाता है. यह व्रत अत्यंत फलदायी है.

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