भक्ति में अद्भुत शक्ति है


भक्ति नाचता हुआ धर्म है। यदि धर्म उत्सव या नृत्य न हो तो वह धर्म ही नहीं है। जिस दिन भक्ति खो जाती है, उस दिन धर्म भी खो जाता है। भक्ति है, तो भगवान हैं और उनका भक्त भी। भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद बनकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है।
परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति में आनंद बनकर आंसू झरने लगता है। प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में परमात्मा मौजूद है। आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है। शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है। जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं। भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है। यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं।
सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं। जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा। धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं। अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाए। इसलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है। प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही वह भक्त के पास दौड़ा चला आता है। हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं। बिना पता-ठिकाने के जाएं भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है। जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं। इसी तरह जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी। छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है। इसी तरह भक्त के भजन मेंऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते। आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।

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